blog – One India Times https://oneindiatimes.com National News Portal Sat, 01 Jun 2024 05:13:21 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.1 https://oneindiatimes.com/wp-content/uploads/2022/12/fav.png blog – One India Times https://oneindiatimes.com 32 32 जलवायु संकट और भारत https://oneindiatimes.com/climate-crisis-and-india/ https://oneindiatimes.com/climate-crisis-and-india/#respond Sat, 01 Jun 2024 05:13:21 +0000 https://oneindiatimes.com/?p=4127

अशोक शर्मा
वर्ष 2015 के पेरिस जलवायु सम्मेलन में यह तय हुआ था कि वैश्विक तापमान को औद्योगिक युग से पहले के तापमान से 1. 5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने दिया जायेगा।  लेकिन अब विशेषज्ञों का मानना है कि यदि वर्तमान नीतियों पर ही दुनिया चलती रही, तो इस लक्ष्य को पूरा करना असंभव है।  कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने विकसित देशों और बड़ी कंपनियों की आलोचना करते हुए कहा था कि ये सभी वादे तो बड़े-बड़े करते हैं, पर उसे पूरा नहीं करते।  हालांकि भारत को अपनी विकास आकांक्षाओं को साकार करने के लिए बड़ी मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता है तथा उसके लिए जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता में बड़ी कटौती कर पाना कठिन है, फिर भी भारत ने स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन और उपभोग को बढ़ाने को अपनी नीतिगत प्राथमिकता बनाया है।

उल्लेखनीय है कि अमेरिका, चीन और यूरोप के अनेक विकसित देशों की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन बहुत कम है।  यह अमेरिका में 14. 44, चीन में 8. 85 और जर्मनी में 8. 16 मेट्रिक टन है, जबकि भारत में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन केवल 1. 91 मेट्रिक टन है।  भारत ने 2030 तक 500 गीगावाट हरित ऊर्जा उत्पादित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।  ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारत 2070 तक अपने कार्बन उत्सर्जन को शून्य के स्तर पर लाने की दिशा में अग्रसर है।  कुछ समय पहले राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन की घोषणा की गयी है।

अंतरिम बजट में कृषि अवशिष्टों के ऊर्जा स्रोत में बदलने के लिए वित्तीय उपायों की घोषणा हुई है।  कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने सूर्योदय योजना की घोषणा की है, जिसके अंतर्गत निम्न आय वर्ग के एक करोड़ घरों पर सोलर पैनल लगाये जायेंगे।  बजट में प्रावधान किया गया है कि इन घरों को मुफ्त बिजली भी मिलेगी और वे अपने यहां उत्पादित बिजली के अधिशेष को बिजली ग्रिडों को बेचकर कमाई भी कर सकेंगे।  पेरिस जलवायु सम्मेलन के बाद ही भारत और फ्रांस के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय सोलर अलायंस का गठन हुआ था, जिसमें 125 से अधिक देश शामिल हो चुके हैं।  इस प्रकार भारत न केवल देश में वैकल्पिक और अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में प्रयासरत है, बल्कि वह वैश्विक सहभागिता को भी प्रोत्साहित कर रहा है।  दुबई जलवायु सम्मेलन में भारत ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को जानकारी दी थी कि 2021-22 में भारत ने 13। 35 लाख करोड़ रुपये जलवायु प्रयासों पर खर्च किया है, जो सकल घरेलू उत्पादन का लगभग 5। 6 प्रतिशत हिस्सा है।  अगले सात वर्षों में इन कोशिशों पर 57 लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च की उम्मीद है।

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विधि-सम्मत कार्रवाई होगी https://oneindiatimes.com/legal-action-will-be-taken/ https://oneindiatimes.com/legal-action-will-be-taken/#respond Fri, 31 May 2024 05:05:55 +0000 https://oneindiatimes.com/?p=4093

झूठेऔर भ्रामक विज्ञापनों के जरिए आम आदमी को पल्रोभन देकर पैसा बनाने वाली कंपनियों को स्वप्रमाण-पत्र जारी करना होगा। यह दावा गलत हुआ तो हर्जाना चुकाना होगा। उनके खिलाफ विधि-सम्मत कार्रवाई भी होगी। रामदेव की कंपनी पतंजली के भ्रामक विज्ञापन मामले के आलोक में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल करने के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने यह कदम उठाया है। मंत्रालय द्वारा ऐसी प्रणाली और पोर्टल तैयार किया जा रहा है, जिसमें विज्ञापनदाता स्व-प्रमाणपत्र अपलोड करेगा। केंद्र सरकार के उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने इस बाबत दिशा-निर्देश जारी कर दिए हैं जिनके तहत कंपनियों को अपने उत्पादों और वस्तुओं की बिक्री बढ़ाने की गरज से भ्रामक विज्ञापनों से बचने की सलाह दी गई है। भ्रामक विज्ञापनों को करने वाली चर्चित हस्तियों को भी इस झूठ में शामिल माना जाएगा।

यह व्यवस्था अगले महीने से लागू हो जाएगी। दावा गलत सिद्ध होने पर मुकदमा दायर होगा तथा मुआवजा भी देना होगा। हैरत नहीं होनी चाहिए कि अदालत के कड़े रुख के बाद संबंधित मंत्रालय और व्यवस्था चेत रही है। वरना तो अपने यहां गोरापन बढ़ाने वाली क्रीम तकरीबन 54 सालों से भ्रामक विज्ञापनों के सहारे ही बिकती रही हैं, जिनका सालाना रेवेन्यू 2400 करोड़ रुपये से ज्यादा का बताया जा रहा है।
ऐसे ही बच्चों की लंबाई बढ़ाने या हड्डियां मजबूत करने का दावा करने वाले तमाम प्रोडक्ट्स से बाजार अटे पड़े हैं। स्वास्थ्यवर्धक पेयों के मामले में भी कुछ ऐसा ही मंजर है, जिनका बाजार 7500 करोड़ रुपये से ज्यादा का बताया जा रहा है। ताजगी बढ़ाने और भीषण गरमी से राहत देने वाले सॉफ्ट ड्रिंक्स का बाजार 5700 करोड़ रुपये का है, जिनमें शक्कर की मात्रा घातक स्तर तक होने की चेतावनी जब-तब चिकित्सक देते रहते हैं। देश में हर ग्यारहवां शख्स डायबिटीज की चपेट में है।

मगर इन सब चीजों का प्रचार जोर-शोर से साल-दर-साल बढ़ता ही जा रहा है। मुनाफा कमाने वाली कंपनियों के खिलाफ कहीं कोई आवाज उठी भी तो तूती की तरह दब जाती है। इसके लिए स्पष्ट तौर पर सरकार और उसके मंत्रालय जिम्मेदार हैं जिन्हें जनता को भ्रामक प्रचार से बचाने के सख्त कदम उठाने थे। इस बात का फायदा उठाते हुए भ्रामक प्रचार और विज्ञापन के बल पर चांदी कूटने वाली कंपनियां बेखटके रहीं। अब हालांकि बहुत देर हो चुकी है। स्व-प्रमाणपत्र जैसी गाल बजाने वाली व्यवस्था देकर पीठ थपथपाने की बजाय गुणवत्ता मानक सख्ती से तय किए जाएं।

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वैश्विक ऊंचाई पर भारतीय खिलौना कारोबार https://oneindiatimes.com/indian-toy-business-at-global-heights/ https://oneindiatimes.com/indian-toy-business-at-global-heights/#respond Thu, 30 May 2024 05:09:19 +0000 https://oneindiatimes.com/?p=4060

डॉ  जयंतीलाल
व्यापार एवं उद्योग मंत्रालय द्वारा हालिया प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के खिलौना उद्योग ने वित्त वर्ष 2014-15 से 2022-23 के बीच तेज प्रगति की है।  इस अवधि में निर्यात में 239 प्रतिशत की भारी वृद्धि हुई, जबकि आयात में 52 प्रतिशत तक की कमी आयी।  इससे यह रेखांकित होता है कि ‘मेक इन इंडिया’ अभियान से भारत का खिलौना उद्योग वैश्विक ऊंचाई पर है।  इस अभियान ने चीन को झटका देते हुए खिलौना निर्माण को भारत के लिए फायदे का सौदा साबित कर दिया है।  चीन से खिलौनों की खरीदारी करने वाले कई देश अब भारत का रुख कर रहे हैं।  यह कोई छोटी बात नहीं हैं क्योंकि कोई एक दशक पहले खिलौनों की भारत से मुश्किल से ही किसी तरह की खरीद होती थी।  इस समय हैस्ब्रो, मैटल, स्पिन मास्टर और अर्ली लर्निंग सेंटर जैसे खिलौने के वैश्विक ब्रांड आपूर्ति के लिए भारत पर अधिक निर्भर हैं।  इटली की दिग्गज कंपनी ड्रीम प्लास्ट, माइक्रोप्लास्ट और इंकास आदि भी अपना ध्यान चीन से हटाकर भारत पर केंद्रित कर रही हैं।  पांच-छह वर्ष पहले तक भारत खिलौनों के लिए दूसरे देशों पर निर्भर था और 80 फीसदी से अधिक खिलौने चीन से आयात किये जाते थे।  विभिन्न सर्वेक्षणों में लगातार कहा जा रहा था कि चीन से आयातित दो-तिहाई खिलौने असुरक्षित थे।  उनमें सीसा, कैडमियम और बेरियम जैसे असुरक्षित तत्व पाये गये थे।

भारतीय खिलौना उद्योग की बहुत कम समय में हासिल ऐसी सफलता की कभी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी।  भारत का खिलौना निर्यात पांच-छह वर्षों में तेजी से बढ़कर 2,600 करोड़ रुपये के स्तर पर पहुंच गया है।  भारत से अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, यूएइ, दक्षिण अफ्रीका सहित कई देशों को खिलौने निर्यात किये जा रहे हैं।  इस समय भारतीय खिलौना उद्योग का कारोबार करीब 1। 5 अरब डॉलर का है, जो वैश्विक बाजार हिस्सेदारी का 0। 5 फीसदी मात्र है, पर जिस तरह इस उद्योग को प्रोत्साहन दिया जा रहा है, उससे इसके इसी वर्ष तीन अरब डॉलर तक होने की संभावना है।  इस बढ़ोतरी के कई कारण हैं।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार देश के लोगों से स्वदेशी भारतीय खिलौने खरीदने, घरेलू डिजाइनिंग सुदृढ़ बनाने, भारत को खिलौनों के लिए एक वैश्विक विनिर्माण हब बनाने की अपील की है।  बिक्री के लिए भारतीय मानक ब्यूरो (बीआइएस) की मंजूरी जरूरी होना, संरक्षणवाद, चीन-प्लस-वन रणनीति और मूल सीमा शुल्क बढ़ाकर 70 प्रतिशत करने जैसे उपायों से खिलौना उद्योग में तेजी आयी है।  बीआइएस ने घरेलू निर्माताओं को 1,200 से अधिक लाइसेंस और विदेशी निर्माताओं को 30 से अधिक लाइसेंस प्रदान किये हैं।

सरकार के प्रयासों से भारतीय खिलौना उद्योग के लिए अधिक अनुकूल विनिर्माण परितंत्र बनाने में मदद मिली है।  वर्ष 2014 से 2020 तक की अवधि में विनिर्माण इकाइयों की संख्या दोगुनी हो गयी, जबकि आयातित वस्तुओं पर निर्भरता 33 प्रतिशत से घटकर 12 प्रतिशत हो गयी।  वर्तमान में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम (एमएसएमइ) मंत्रालय 19 खिलौना उत्पादन केंद्रों की मदद कर रहा है तथा वस्त्र मंत्रालय 13 केंद्रों को डिजाइनिंग करने और जरूरी साधन मुहैया कराने में सहयोग कर रहा है।  स्वदेशी खिलौनों को बढ़ावा देने और नवाचार को प्रोत्साहित करने के लिए कई प्रचार पहल भी की गयी हैं, जिनमें इंडियन टॉय फेयर 2021, टॉयकैथॉन आदि शामिल हैं।  विदेश व्यापार महानिदेशालय ने घटिया स्तर के खिलौनों के आयात पर अंकुश लगाने के लिए प्रत्येक आयात खेप का नमूना परीक्षण अनिवार्य कर दिया है।  वर्ष 2014-15 के बाद से इस बार के अंतरिम बजट तक में लगातार सरकार ने खिलौना उद्योग के विकास के लिए प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहन और समर्थन देने की पहल की है।  खिलौना उद्योग को देश के 24 प्रमुख सेक्टरों में स्थान दिया गया है।

मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत की नीतिगत पहलों के साथ-साथ घरेलू निर्माताओं के प्रयासों से भारतीय खिलौना उद्योग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।  पर अभी भी कई बाधाएं हैं।  भारतीय खिलौना उद्योग में विकास को बढ़ावा देने के लिए रणनीतिक कार्य योजना, संबंधित एजेंसियों के बीच उपयुक्त तालमेल व चीन की तरह देश में खिलौने के विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने की जरूरत है।  खिलौनों पर जीएसटी दर में कटौती की जानी चाहिए।  अधिकांश भारतीय खिलौने ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर उपलब्ध होने चाहिए, ताकि घरेलू खिलौनों की बिक्री बढ़ सके।  पारंपरिक और यांत्रिक खिलौनों के लिए उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना शीघ्र शुरू की जाए।  सुगठित खिलौना प्रशिक्षण और डिजाइन संस्थान की स्थापना को मूर्त रूप देना होगा।  बैंकों से ऋण तथा वित्तीय सहायता संबंधी बाधाओं को दूर करना होगा।  हम उम्मीद करें कि सरकार देश को खिलौनों का वैश्विक हब बनाने और खिलौनों के वैश्विक बाजार में चीन को अधिक टक्कर देने की डगर पर आगे बढ़ेगी।  घरेलू बाजार के सस्ते और गुणवत्तापूर्ण खिलौनों से बच्चों के चेहरों पर मुस्कुराहट बढ़ेगी।  अधिक निर्यात से विदेशी मुद्रा की कमाई के साथ-साथ रोजगार के मौके भी तेजी से बढ़ेंगे।

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एफपीओ किसानों की उन्नति के पर्याय https://oneindiatimes.com/fpo-is-synonymous-with-the-progress-of-farmers/ https://oneindiatimes.com/fpo-is-synonymous-with-the-progress-of-farmers/#respond Wed, 29 May 2024 04:56:20 +0000 https://oneindiatimes.com/?p=4027

संजीव मिश्र
उत्तम खेती मध्यम बान, निषिध चाकरी भीख निदान अर्थात खेती सबसे अच्छा काम है, व्यापार मध्यम है, नौकरी निषिद्ध है और भीख मांगना सबसे बुरा काम है। जनकवि घाघ ने जब यह दोहा लिखा होगा उस समय खेती-किसानी न सिर्फ  सम्मानजनक पेशा था, बल्कि किसान सबसे ज्यादा खुशहाल था। लेकिन आजादी के बाद कृषि क्षेत्र की उपेक्षा के चलते हालात इस कदर बिगड़ गए कि कृषि न केवल घाटे का सौदा बन गई, बल्कि किसान आत्महत्या करने को विवश हुआ। अब जलवायु परिवर्तन के चलते हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं।

अध्ययनों की मानें तो अकेले भारत में 2050 तक वष्रा-आधारित चावल की पैदावार 20 प्रतिशत और 2080 में 47 प्रतिशत तक की कमी की आशंका है। जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित संयुक्त राष्ट्र के अंतरसरकारी पैनल की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि अगले दो दशकों में वैिक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस या इससे भी अधिक की बढ़ोतरी होगी जिसका असर पानी की उपलब्धता से लेकर कृषि और खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा। भारत सरीखे देशों को तो ग्लोबल वार्मिंंग से उपजी परिस्थितियां खास परेशान करेंगी क्योंकि भूजल का 89 प्रतिशत हिस्सा कृषि क्षेत्र ही उपयोग करता है। इसलिए तापमान बढऩे से भारत जैसे देशों में खेती पर दूरगामी असर पड़ेंगे। भारत में दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी रहती है, मगर कुल वैिक जल संसाधनों का 4 प्रतिशत ही उपलब्ध है। बावजूद इसके आजादी के बाद दशकों तक सरकारों द्वारा कोई ठोस प्रयास नहीं किया जाना समझ से परे है।

दरअसल, सरकारों के लिए किसान राजनीतिक मोहरा रहे जिन पर राजनीति तो खूब हुई लेकिन उनकी स्थिति सुधारने, आमदनी बढ़ाने, खेती को घाटे से फायदे का सौदा बनाने के प्रति गंभीर प्रयास नहीं किए गए। यही वजह है कि किसानों की स्थिति में सकारात्मक सुधार नहीं हुए। इस लिहाज से पिछला दशक भविष्य के प्रति आस्त करता है। 2014 में सरकार बनने के बाद से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किसानों की आय बढ़ाने के साथ टिकाऊ खेती की योजना बनाई। 2016 में सरकार ने कृषि आय को दोगुना करने के तरीकों का सुझाव देने के लिए गठित समिति की सिफारिशों पर तेजी से अमल किया जिसमें सबसे अहम है प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना। दुनिया की सबसे बड़ी डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर स्कीम माने जाने वाली इस योजना में देश के 11 करोड़ से अधिक किसानों को 2.61 लाख करोड़ रु पये से अधिक का लाभ मिला है।

सरकार किसानों को कई तरह की सब्सिडी भी दे रही है। र्फटलिाइजर सब्सिडी का बजट ही प्रति वर्ष 2 लाख करोड़ रु पये से अधिक है। सरकार टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देने और वित्तीय अनुशासन बनाए रखने के प्रति भी सजग है। एक राष्ट्र-एक र्फटलिाइजर जैसी पहल, नीम और सल्फर कोटेड यूरिया इस दिशा में उठाया गया ठोस कदम है। सरकार अब पर ड्राप, मोर क्रॉप का लक्ष्य, ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई जैसी सूक्ष्म सिंचाई टेक्नोलॉजी को अमल लाकर जल उपयोग दक्षता को बढ़ावा दे रही है। इसके लिए एक सूक्ष्म सिंचाई कोष की स्थापना भी की गई है जिसके लिए राज्यों को 18,000 करोड़ से अधिक की केंद्रीय सहायता जारी की गई है। सरकार कृषि में व्यापक बिजली खपत के लिए सौर ऊर्जा का विकल्प भी दे रही है।

समय अब परंपरागत खेती की जगह अत्याधुनिक संसाधनों से खेती का है। खुद प्रधानमंत्री भी अक्सर इनोवेटर्स और रिसर्चर्स से आग्रह करते हैं कि प्रति इंच जमीन पर ‘अधिकाधिक फसल’ के बारे में सोचें। कृषि आय बढ़ाने की दिशा में सरकार की प्रतिबद्धता को बजट से आंका जा सकता है। कृषि और संबद्ध गतिविधियों के बजट को 4.35 गुना बढ़ाकर 2013-14 के 30,223 करोड़ से 2023-24 में 1.3 लाख करोड़ रु पये से अधिक किया गया है। सरकार भी प्रत्येक किसान को किसी न किसी रूप में औसतन 50,000 रु पये प्रदान कर रही है।

इन सबके सकारात्मक परिणाम दिखने लगे हैं। एनएसएसओ के हालिया सिचुएशन असेसमेंट सर्वे (2018-19) के अनुसार, मासिक कृषि घरेलू आय 2012-13 में 6,426 से बढक़र 2018-19 में 10,218 रु पये हो गई। दरअसल, मोदी सरकार ने ‘सहकार से समृद्धि’ के स्वप्न को साकार करने हेतु एफपीओ के गठन का निर्णय लिया था। आज एफपीओ किसानों की उन्नति के पर्याय बन गए हैं। अकेले समुन्नति संस्था 6500 से अधिक एफपीओ के साथ मिल कर 8 लाख से अधिक किसानों के जीवन में बदलाव लाई है। समुन्नति के माध्यम से सकल लेन देन का आंकड़ा 22,000 करोड़ से ऊपर पहुंच गया है। सरकार को इन संस्थाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि किसानों की आमदनी बढऩे के साथ-साथ खेती फायदे का सौदा साबित हो सके।

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सरकारी और निजी अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता बेहतर हो https://oneindiatimes.com/the-quality-of-health-care-should-be-better-in-government-and-private-hospitals/ https://oneindiatimes.com/the-quality-of-health-care-should-be-better-in-government-and-private-hospitals/#respond Tue, 28 May 2024 04:57:14 +0000 https://oneindiatimes.com/?p=3994

हिमानी रावत
बीमार व्यक्ति बड़ी आशा लेकर अस्पताल जाता है कि उसका समुचित इलाज हो सकेगा।  लेकिन अनेक अस्पताल अपनी कमाई बढ़ाने के लिए अनुचित तौर-तरीके अपनाते हैं, जो अनैतिक भी है और आपराधिक भी।  ऐसी शिकायतों को देखते हुए अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को मान्यता देने वाले राष्ट्रीय बोर्ड (एनएबीएच) ने लिखित चेतावनी दी है कि मान्यता हासिल करने और पैनलों में पंजीकृत होने के लिए अगर उन्होंने फर्जी या गलत दस्तावेज जमा किये, तो उनकी मान्यता रद्द की जा सकती है और उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जा सकती है।

यह चेतावनी 15 मार्च को जारी की गयी थी, पर इसे 16 मई को सार्वजनिक किया गया।  इस राष्ट्रीय बोर्ड का गठन 2005 में हुआ था और यह भारतीय गुणवत्ता परिषद की एक इकाई है।  एनएबीएच के तहत चलने वाले मान्यता देने के कार्यक्रम का उद्देश्य यह है कि सरकारी और निजी अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता बेहतर हो तथा रोगियों को अच्छा उपचार एवं सुरक्षा हासिल हो।  बीते वर्षों में यह कार्यक्रम लगातार प्रभावी होता गया है तथा उसकी गणना वैश्विक स्तर के कार्यक्रमों एवं मानकों में होती है।  एनएबीएच की चेतावनी में रेखांकित किया गया है कि अस्पतालों की गलत हरकतों और फर्जी दस्तावेजों के इस्तेमाल से मान्यता प्रक्रिया की दृढ़ता तथा बोर्ड के भरोसे को चोट पहुंच रही है।

ऐसी शिकायतों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिनमें कहा जा रहा है कि अनेक अस्पताल अपने दावों से कमतर सेवा उपलब्ध करा रहे हैं तथा कई जगहों पर पर्याप्त संसाधन नहीं हैं।  वे अपनी कमियों को छुपाते हैं और कमाई के लालच में रोगियों का शोषण करते हैं।  कुछ समय पहले मशहूर अस्पतालों के बारे में जानकारी सामने आयी थी कि वे बाजार की तुलना में महंगे दामों पर दवाएं बेच रहे हैं।  इस मामले में जांच भी हुई थी।  एक संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कोरोना काल में बिस्तर उपलब्ध होने के बावजूद कई निजी अस्पताल संक्रमित लोगों को भर्ती नहीं कर रहे थे।  इसके अलावा, वे मनमर्जी से भारी फीस भी वसूल रहे थे।

आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा योजना में शामिल कई अस्पताल गलत खर्च दिखाने के लिए मामलों में चिह्नित एवं दंडित किये गये हैं।  लेकिन यह भी सच है कि जितनी गंभीर गलती होती है, उतनी सजा नहीं मिलती।  कुछ समय पहले भारत सरकार ने गहन चिकित्सा कक्ष में भर्ती को लेकर दिशा-निर्देश जारी किया है, जिससे अस्पतालों की मनमानी पर कुछ रोक लगी है।  हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को फीस के बारे में नियमन करने का निर्देश देते हुए कहा था कि अगर सरकार ने इस संबंध में कुछ नहीं किया, तो अदालत ही फैसला करेगी।  लोगों को भी सचेत एवं जागरूक रहने की आवश्यकता है।

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अकेले महिलाओं को दोषी नहीं ठहराया जा सकता https://oneindiatimes.com/women-alone-cannot-be-blamed/ https://oneindiatimes.com/women-alone-cannot-be-blamed/#respond Mon, 27 May 2024 05:01:55 +0000 https://oneindiatimes.com/?p=3961

अमेरिका की प्रजनन दर में 2023 के दौरान गिरावट दर्ज की गयी है। यूएस सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन की ताजा रपट के अनुसार आस्ट्रेलिया में भी समान पैटर्न नजर आ रहा है। कह रहे हैं कि कोविड-19 महामारी के चरम के वक्त प्रजजन दर में अस्थाई वृद्धि देखी गयी थी। जिसे छोड़ कर अमेरिकी प्रजनन दर लगातार गिर रही है। इससे कम प्रजनन दर के मामले में जापान, दक्षिण कोरिया व इटली हैं। अमेरिका व आस्ट्रेलिया में इस वक्त प्रजनन दर 1.6 है। जबकि दक्षिण कोरिया में 0.68 रह गयी है।

इन देशों में जितने बच्चे जन्म रहे हैं, उससे ज्यादा मौतें हो रही हैं। असल सवाल महिलाओं के कम बच्चे पैदा करने पर जा अटकता है। यूं भी आस्ट्रेलियाई महिलाएं दुनिया में सबसे शिक्षित हैं। पढ़ाई को काफी वक्त देने के बाद वे करियर बनाने में जुट जाती हैं। बच्चे पालना महंगा तथा समय लेने वाली जिम्मेदारी है।

महिलाएं ही नहीं पुरुष भी स्थाई नौकरी व आर्थिक सुरक्षा के प्रति जागरूक हो रहे हैं। अमीर देश ही नहीं, दुनिया भर के 204 देशों और क्षेत्रों में से 155 यानी 76त्न में 2050 तक प्रजनन दर जनसंख्या प्रतिस्थापन स्तर से नीचे पहुंच जाएगी। जनसंख्या को स्थिर बनाये रखने के लिए प्रति महिला 2.1 प्रजनन दर की आवश्यकता है। चूंकि अपने यहां इस वक्त उर्वर  यानी 18-35 की उम्र वालों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक तकरीबन साठ करोड़ बतायी जा रही है।

विश्लेषकों का अनुमान है कि जनसंख्या 2064 में लगभ 9.7 अरब पहुंच सकती है। मगर 2100 में यह सिकुड़ कर 8.8 अरब पर थम सकती है। प्रजनन दर में आने वाली गिरावट के लिए अकेले महिलाओं को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह सच है कि बच्चों के लालन-पालन में लगने वाले समय, ऊर्जा व धन को लेकर मानदंड बलदते जा रहे हैं।

दूसरे देर से युवावस्था की ढलाने में हो रही शादियां व प्रजनन क्षमता में होने वाली गिरावट/दिक्कतों की अनदेखी नहीं की जा सकती। बदलती जीवन-चर्या, आर्थिक दबाव, करियर की बढ़ती मांगे, प्रतिस्पर्धा आदि ने युवाओं का जेहनी सुकून छीना है। बच्चों की देखभाल की उचित व्यवस्था का अभाव भी युवाओं को परिवार बढ़ाने से विमुख करता है। यह जटिल समस्या नहीं है, इसे लाइफ स्टाइल से जोड़ कर देखा जाना चाहिए और इसे सुधारने के प्रति सभी को आगे बढऩा चाहिए।

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जानलेवा ना बने निर्दोष जनता के लिए https://oneindiatimes.com/do-not-become-deadly-for-innocent-people/ https://oneindiatimes.com/do-not-become-deadly-for-innocent-people/#respond Sun, 26 May 2024 04:42:48 +0000 https://oneindiatimes.com/?p=3927

अनिरुद्ध गौड़
मुंबई में गत 13 मई को एक भयंकर धूल भरी आंधी, तूफान और भारी बारिश आई, जिससे मुंबई महानगर का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। पेड़ उखड़ गए, बिजली गुल हो गई, चल रहा यातायात रुक गया, बचने को लोग जहां तहां छिप गए। इस तूफान से बचने को मुंबई के घाटकोपर के पूर्वी उपनगर में भी एक फ्यूल स्टेशन के शेल्टर के नीचे सौ से अधिक लोग खड़े थे। इस बीच फ्यूल सेंटर के साइड में खड़ा 120 गुणा 120 फीट लंबा चैड़ा विशालकाय टनों वजनी लोहे का विज्ञापन होर्डिंग फयूल स्टेशन पर गिर गया। हादसे में दबकर अबतक करीब 16 लोगों की मौत हो चुकी हैं और करीब 70 घायलों का इलाज चल रहा है।

देश की व्यावसायिक राजधानी मुंबई में हुआ यह हादसा बेहद गंभीर है। हादसे के बाद अभी भी राहत और बचाव के कार्य चल रहे हैं, महाराष्ट्र सरकार ने हताहतों को मुआवजे की धनराशि देने की घोषणा और घायलों के इलाज के इंतजाम किए है, जबकि मुंबई में लगे सभी होर्डिंगस के सुरक्षा ऑडिट के निर्देश दिए हैं। होर्डिंग एजेंसी पर भी मामला दर्ज आरोपी की तलाश है, लेकिन साफ तौर पर यह हादसा व्यवस्था में आमूलचूल लापरवाही का नतीजा है।

रेलवे पुलिस की जमीन पर खड़ा ये होर्डिंग गिरा और जिम्मेदारी की बात उठी तो बीएमसी ने रेलवे पर और रेलवे ने बीएमसी को जिम्मेदार ठहराया है। जिम्मेदारी के आरोप प्रत्यारोप में राजनीति भी गरमा रही है, जबकि इस दुर्घटना में महाराष्ट्र की आई गई सरकार से लेकर हर उस एजेंसी की जिम्मेदारी है जो बड़े इंफ्रास्टक्चर के निर्माण से लेकर उस पर निगरानी तक रखती हैं। सवाल उठता है आखिर व्यावसायिक नगरी मुंबई में मानक से कहीं अधिक बड़ा होर्डिंग कैसे खड़ा हो गया? जबकि मुंबई में 40 गुणा 40 फीट से अधिक बड़ा होर्डिंग लगाने की मंजूरी नहीं है। क्या इस होर्डिंग को लगाने वाली विज्ञापन एजेंसी ईगो मीडिया प्राइवेट लिमिटेड के पास बीएमसी से इस विशालकाय होर्डिंग को लगाने की अनुमति थी? क्यों रेलवे ने बिना बीएमसी की मंजूरी के इतना बड़ा होर्डिंस लगने दिया?

नियमों का उलंघन कर इतने बड़े होर्डिंग की लोगों ने शिकायत की तो क्यों बीएमसी और रेलवे ने इसे हटाने को कदम नहीं उठाएं? क्या शिकायत पर बीएमसी का रेलवे और विज्ञापन एजेंसी को दो साल बाद नोटिस देना ही काफी था? सवाल यह भी है कि विशालकाय होर्डिंग को लगाने के दौरान निर्माण सामग्री की जांच और सभी सुरक्षा पहलुओं पर क्यों नहीं निगरानी की गई? क्योंकि जब होर्डिंग गिरा तो देखा गया कि होर्डिंग मानक से बहुत कम गहरी नींव पर खड़ा था। आखिर क्यों नहीं जिम्मेदार संस्थाओं ने इस होर्डिंग को लगाने के दौरान निर्माण मानकों और सुरक्षा की जांच परख की? क्या होर्डिंग लगाने वाली एजेंसी व्यवस्था से अधिक ताकतवर है जिसके कारण जिम्मेदार अधिकारी उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सके। मुंबई शहर समुद्र के किनारे बसा है, कभी भी बारिश होना और तेज हवाओं का चलना यहां आम बात है। जब मुंबई में बड़े इंफ्रास्टक्चर खड़े किए जाते हैं तो बीएमसी सुरक्षा मानकों को पूरी तरह परखकर ही अनुमति देती है।

फिर सुरक्षा मानकों और नियम कायदों में कोताही बरतकर बेहद असुरक्षित विशालकाय होर्डिंग का खड़ा हो जाना बीएमसी और रेलवे की लापरवाही नही तो और क्या है? पेट्रोल और गैस फ्यूल स्टेशन एक बेहद संवेदनशील यूनिट होती हैं, इसके समीप विशाल होर्डिंग लगाने में सुरक्षा मापदंडों में पूरी कोताही रही है। वैसे जलवायु परिवर्तन से देश ही नहीं वल्कि पूरा विश्व प्रभावित है। प्राकृतिक आपदाओं के हर दिन हादसे देखे जा सकते हैं। ग्लोबल वार्मिंंग के कारण अरब सागर में चक्रवातों की तीव्रता में वृद्धि हुई है। भारत में समुद्री चक्रवातों की बात करें तो हर साल बंगाल और अरेबियन सी के समुद्र तटों पर कोई न कोई तेज रफ्तार चक्रवाती तूफान तबाही का मंजर लेकर आता है। मुंबई अरेबियन सी के तट पर बसी है। अतीत में झांकें तो पता चलता है कि अरेबियन सी में कई भयंकर तूफान ने कहर बरपाया है। तेज हवाओं और आंधी तूफान से गुजरात के तटों और तटीय गांवों पर बुनियादी ढांचे तहस नहस हुए।

इन चक्रवातों के दृष्टिगत समुद्र किनारे के शहरों में अधिक एहतिया बरतने की आवश्यकता है। विज्ञापन होर्डिंग नगर निकायों की अतिरिक्त आय के साधन हैं। जबकि विशालकाय विज्ञापन होर्डिंग उपभोक्ताओं को दूर से आकषिर्त करते हैं। जहां तक देश के राज्यों में विज्ञापन होर्डिंस लगाने की बात है अलग-अलग राज्यों और शहरों में इनको लगाने के दिशा-निर्देश अलग हो सकते हैं। इन पर प्रतिबंध लगाना तो ठीक नहीं क्योंकि ये नगर निकायों की आय के साधन हैं, लेकिन नगर निकायों को इनके मानकों और आमजन की सुरक्षा को देखना भी बहुत जरूरी है। विज्ञापन एजेंसी मनमर्जी से किसी भी आकार, भार और मानकों के होर्डिंस लगाए यह मंजूर नहीं है। ऐसी एजेंसियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। नगर निकायों को होर्डिंस लगाने के नियम और मानको को स्पष्टता के साथ एक अंतराल पर इनका सुरक्षा ऑडिट करना भी जरूरी है। ताकि संबंधित संस्थाओं की लापरवाही मुंबई के इस होर्डिंग की तरह निर्दोष जनता के लिए जानलेवा ना बने।

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दवा कंपनियों से उपहार या आर्थिक लाभ लेने पर पाबंदी https://oneindiatimes.com/ban-on-taking-gifts-or-financial-benefits-from-pharmaceutical-companies/ https://oneindiatimes.com/ban-on-taking-gifts-or-financial-benefits-from-pharmaceutical-companies/#respond Sat, 25 May 2024 11:41:10 +0000 https://oneindiatimes.com/?p=3915

डॉ ईश्वर
भारत सरकार ने दवा कंपनियों द्वारा चिकित्सकों एवं अन्य स्वास्थ्यकर्मियों या उनके परिवारों को व्यक्तिगत लाभ मुहैया कराने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए संहिता जारी की है।  इस संहिता- यूनिफॉर्म कोड ऑफ फार्मास्यूटिकल मार्केटिंग प्रैक्टिसेज (यूसीपीएमपी) 2024- के तहत इस नियमन को लागू करने की जिम्मेदारी कंपनियों की होगी।  अपने उत्पादों को बेचने के लिए स्वास्थ्यकर्मियों को उपहार, यात्रा सुविधा, हॉस्पिटैलिटी, नगदी आदि देने की शिकायतों के निपटारे के लिए फार्मा कंपनियों को एक एथिक्स कमिटी बनानी होगी, जिसमें तीन से पांच सदस्य होंगे।  इस समिति के प्रमुख बोर्ड के सीइओ होंगे।  इस कमिटी की जानकारी वेबसाइट पर उपलब्ध करानी होगी।  कोड में स्पष्ट कहा गया है कि नियमन के पालन के लिए कंपनी के सीइओ जिम्मेदार होंगे।  उन्हें हर वित्त वर्ष की समाप्ति के दो माह के भीतर यह घोषणा देनी होगी कि उनकी कंपनी नियमों का पालन कर रही है और उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए स्वास्थ्यकर्मियों को किसी भी तरह का व्यक्तिगत लाभ नहीं दिया जा रहा है।  कोड में ऐसे किसी व्यक्ति को मुफ्त सैंपल दवा देने की भी मनाही है, जो ऐसे किसी उत्पाद को मरीजों को देने के लिए योग्य नहीं है।  जो सैंपल दवा डॉक्टरों को दिये जाते हैं, उनका मूल्य कंपनी के कुल घरेलू बिक्री के दो प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।  पिछली बार फार्मास्यूटिकल डिपार्टमेंट ने ऐसा नियमन 2014 में लाया था।

ऐसा नियमन इसलिए करना पड़ा है क्योंकि ऐसे कई मामले सामने आते हैं, जिनमें बड़ी बड़ी कंपनियां डॉक्टरों को विदेश यात्रा पर ले जाती हैं।  ऐसा भी होता है कि कंपनियां स्वास्थ्यकर्मियों के निजी उत्सवों, मसलन जन्मदिन, शादी की वर्षगांठ आदि, का खर्च उठाती हैं।  महंगे उपहार भी दिये जाते हैं।  इसके बदले में वे कंपनियां अपना कारोबार बढ़ाना चाहती हैं।  यह एक तरह का लेन-देन है कि हम आप पर खर्च कर रहे हैं और आप हमारे उत्पाद की बिक्री बढ़ाने में मदद करें।  कोई भी कंपनी अपने उत्पाद के प्रचार-प्रसार के लिए तरह-तरह के कार्यक्रम और उपाय करती है।  वैसा ही माहौल मेडिकल पेशे में भी आ गया।  इस पेशे में अपनी जानकारी को समय-समय पर बढ़ाना तथा दूसरे चिकित्सकों के अनुभवों से सीख लेना जरूरी होता है।  इसके लिए सम्मेलन, वर्कशॉप और सेमिनार होते हैं।  इसका मतलब यह होता है कि ऐसे आयोजनों से अपनी जानकारी बढ़ाकर हम अपने मरीजों को बेहतर उपचार मुहैया करायें।  हर डॉक्टर को मेडिकल काउंसिल में अपने पंजीकरण का हर पांच साल में नवीनीकरण कराना होता है और उसके लिए 30 क्रेडिट प्वाइंट का विवरण जमा करना होता है।  इसके लिए कम से कम 120 घंटे के शिक्षा कार्यक्रम में भाग लेना होता है।  किसी भी अन्य पेशे में ऐसा करने की जरूरत नहीं पड़ती।

अगर यह बाध्यता चिकित्सकों के लिए सरकार की तरफ से निर्धारित है, तो ऐसे कार्यक्रम भी सरकार, मेडिकल काउंसिल और विश्वविद्यालयों की ओर से आयोजित किये जाने चाहिए।  लेकिन ऐसा होता नहीं है।  ऐसी स्थिति में चिकित्सक एसोसिएशनों को अपने स्तर पर इस तरह के कार्यक्रम करने पड़ते हैं और जहां खर्च करने की बात आती है, तो दवा कंपनियां खर्च करती हैं क्योंकि उन्हें ऐसे कार्यक्रमों से लाभ होता है।  लेकिन इस संबंध में नियम यह स्थापित किया गया है कि प्रायोजक कंपनियों के उत्पादों को मुख्य सम्मेलन कक्ष में प्रदर्शित नहीं किया जाता है और न ही उसके उत्पादों के नाम के साथ आयोजन का प्रचार होता है।  अब होता यह है कि गलत करने वाले लोगों के कारण सही करने वालों पर भी आंच आती है।  ऐसे में इस तरह के कार्यक्रमों को नहीं रोका जाना चाहिए या फिर सरकार को उसके लिए वैकल्पिक इंतजाम करना चाहिए।  ऐसा नहीं होने से कंपनियों और डॉक्टरों का एक गलत गठजोड़ बनेगा।

चिकित्सा के क्षेत्र में जो भी गड़बड़ियां हैं, उन्हें दूर करने के लगातार प्रयास होने चाहिए।  इस संदर्भ में भारत सरकार का नया नियम एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।  इस क्षेत्र में कुछ लोग खराब हो सकते हैं, पर हमें ऐसी मानसिकता नहीं रखनी चाहिए कि महामारी या आपात स्थिति में तो डॉक्टर भगवान है, पर बाकी समय वह शैतान है।  अगर हम कंपनियों और डॉक्टरों की वित्तीय मिलीभगत को प्रभावी ढंग से रोकना चाहते हैं, तो हमें भारी-भरकम फीस लेकर दी जाने वाली मेडिकल शिक्षा को भी नियंत्रित करना चाहिए।  हाल में निजी मेडिकल कॉलेजों में अधिक फीस को लेकर कुछ कदम उठाये गये हैं, पर अभी उनका असर देखा जाना बाकी है।

महंगी शिक्षा इस पेशे में आ रही गड़बड़ियों का मुख्य कारण है।  नये नियमों में यह प्रावधान किया गया है कि अगर कंपनी का कोई व्यक्ति डॉक्टरों को निजी लाभ देकर अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने का प्रयास करेगा, तो उस पर समुचित कार्रवाई कर उसकी जानकारी सार्वजनिक करनी होगी।  अब यह देखना है कि कंपनियां कितनी गंभीरता से इसका पालन करती हैं।  डॉक्टरों को भी यह समझना चाहिए कि लालच में किसी दवा या अन्य उत्पाद की बिक्री बढ़ाने में सहयोगी बनना पेशे और मरीजों के साथ अन्याय है।  कुछ डॉक्टरों की वजह से पूरे पेशे पर दाग लगता है।

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कुछ नेताओं के लिए यह चुनाव निर्णायक साबित हो सकता है https://oneindiatimes.com/this-election-may-prove-decisive-for-some-leaders/ https://oneindiatimes.com/this-election-may-prove-decisive-for-some-leaders/#respond Fri, 24 May 2024 05:08:10 +0000 https://oneindiatimes.com/?p=3873

राज कुमार
लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार की ‘हैट्रिक’ का नारा दिया है।  वैसा हुआ, तो विपक्ष की भूमिका में कांग्रेस की भी ‘हैट्रिक’ होगी।  दोनों बड़े दलों पर परिणामों का दूरगामी असर होगा, लेकिन कुछ दल और नेता तो ऐसे हैं, जिनका भविष्य ही इस चुनाव में तय हो जायेगा।  राजनीति में किसी को खारिज नहीं करना चाहिए, पर बदलते परिदृश्य में कुछ नेताओं के लिए यह चुनाव निर्णायक साबित हो सकता है।  हार के बाद उनका वजूद तो बचा रह सकता है, किंतु चुनावी राजनीति में प्रासंगिकता शायद ही बचे।

उत्तर प्रदेश में चमत्कारिक रफ्तार से बढ़ी बसपा अपने बूते सत्ता तक पहुंची।  मायावती ने चार बार मुख्यमंत्री बनने का करिश्मा कर दिखाया।  मध्य प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में असर के चलते केंद्रीय सत्ता की चाबी कभी बसपा के हाथ नजर आती थी।  पार्टी को राष्ट्रीय दल का दर्जा मिला और मायावती प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगीं।  वे प्रधानमंत्री नहीं बन पायीं, पर उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री भी शक्तिशाली राजनेता माना जाता है।  साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा से गठबंधन में 19। 3 प्रतिशत वोट की बदौलत 10 सीटें जीतने में सफल बसपा अकेले लड़ने पर 2022 के विधानसभा चुनाव में 12। 88 प्रतिशत वोट और मात्र एक सीट पर सिमट गयी।  उसके दस सांसदों में से ज्यादातर चुनाव से पहले हाथी का साथ छोड़ गये।  यह चुनाव भी बसपा अकेले लड़ रही है।

विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ ने बसपा से दोस्ती की कोशिश की थी। अखिलेश की मानें, तो ‘इंडिया’ मायावती को प्रधानमंत्री बनाना चाहता था।  फिर क्यों मायावती ने ‘एकला चलो’ का फैसला किया? इसके जवाब में बहुत कुछ छिपा हो सकता है।  पिछले लोकसभा चुनाव में यदि सपा-बसपा-रालोद गठबंधन 15 सीटें जीतने में सफल हो गया था, तो बदलते राजनीतिक परिदृश्य में इस बार कांग्रेस के भी साथ होने पर ‘इंडिया’ उत्तर प्रदेश में बड़ी चुनौती पेश कर सकता था, जो भाजपा का सबसे बड़ा शक्ति स्रोत है।  इसीलिए बसपा पर भाजपा की ‘बी टीम’ होने के आरोप लग रहे हैं।

भतीजे आकाश आनंद को बीच चुनाव उत्तराधिकारी के साथ ही नेशनल कॉर्डिनेटर पद से हटाने को भी मायावती की अबूझ राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है।  बसपा की चार दशक की राजनीतिक कमाई क्यों दांव पर लगायी, यह मायावती बेहतर जानती होंगी, लेकिन सिमटता जनाधार उन्हें चुनावी राजनीति में अप्रासंगिक बना रहा है।  इस चुनाव में बसपा चमत्कार नहीं कर पायी, तो राजनीतिक शोध का विषय बन कर रह जायेगी।

राष्ट्रीय लोकदल का भी सब कुछ दांव पर है।  जवाहर लाल नेहरू से मतभेदों के चलते कांग्रेस से अलग भारतीय क्रांति दल बनाने वाले चौधरी चरण सिंह बाद में प्रधानमंत्री भी बने।  हार-जीत होती रही, दल का नाम भी बदलता रहा, पर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा से भी आगे पंजाब, मध्य प्रदेश और ओडिशा तक फैले उनके जनाधार और क्षत्रपों पर सवालिया निशान नहीं लगा।  उनके निधन के बाद, खासकर मंडल-कमंडल के ध्रुवीकरण के चलते वह जनाधार उनके बेटे अजित सिंह के दौर में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों तक सिमट गया।

उनके पुत्र जयंत चौधरी में चरण सिंह की छवि देखने वालों को उम्मीदें बहुत थीं, पर उन्होंने जिस तरह पलटी मार मात्र दो सीटों के लिए सत्तापक्ष का दामन थाम लिया, उसके नतीजे किसान राजनीति के सबसे बड़े चौधरी की विरासत का भविष्य भी तय कर देंगे।  वैसी ही चुनौती बिहार में चिराग पासवान के समक्ष है।  रामविलास पासवान, लालू यादव और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी चौधरी चरण सिंह की अगुवाई वाली लोकदल-समाजवादी राजनीतिक धारा से निकले।  बिहार मंे कई लोगों की राजनीति लंबी नहीं बची है।  लालू के वारिस के रूप में तेजस्वी ने खुद को स्थापित कर लिया है, पर पासवान की विरासत पर संकट है।  पहले लोजपा भाई और भतीजे के बीच बंट गयी, तो अब चुनावी परीक्षा है।

महाराष्ट्र में शिवसेना तोड़कर भाजपा की मदद से मुख्यमंत्री बने एकनाथ शिंदे की असली परीक्षा इस चुनाव में है।  यही हाल अजित पवार का है।  पांच साल में अपने चाचा शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी दो बार तोड़ कर भाजपा की मदद से उप मुख्यमंत्री बनने वाले अजित महाराष्ट्र की राजनीति के ‘दादा’ बन पाये हैं या नहीं, यह फैसला हो जायेगा।  उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में बनी शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस के गठबंधन महाविकास अघाड़ी की सरकार गिराने और वैकल्पिक सरकार बनाने में भाजपा के लिए शिंदे और अजित की उपयोगिता थी।
यदि वे असफल रहे, तो भाजपा उनका बोझ नहीं ढोयेगी क्योंकि महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव अक्तूबर में है।  उसी समय हरियाणा में भी चुनाव है।  वहां पिछली बार भाजपा बहुमत से चूक गयी और सत्ता की चाबी नयी बनी जननायक जनता पार्टी के हाथ चली गयी।  उस चाबी के सहारे 10 विधायकों के नेता दुष्यंत चौटाला उपमुख्यमंत्री बन गये, लेकिन बीते मार्च वह गठबंधन टूट गया और बात भाजपा सरकार गिराने के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाने तक पहुंच गयी है।  जजपा खुद बिखराव के कगार पर है।  इसका भविष्य भी इस बार तय हो जायेगा।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। )

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खाने-पीने की चीजों में मिलावट की समस्या बहुत पुरानी   https://oneindiatimes.com/the-problem-of-adulteration-in-food-items-is-very-old/ https://oneindiatimes.com/the-problem-of-adulteration-in-food-items-is-very-old/#respond Thu, 23 May 2024 04:54:01 +0000 https://oneindiatimes.com/?p=3834

अशोक शर्मा
इस महीने के शुरू में सिंगापुर और हांगकांग में मसालों के दो मशहूर भारतीय ब्रांडों के उत्पादों पर पाबंदी लगा दी गयी।  इन मसालों में घातक कीटनाशक एथिलीन ऑक्साइड मिलने की बात सामने आयी है, जो मानवीय उपभोग के लिए उचित नहीं है और इसे निरंतर खाने से कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी भी हो सकती है।  इस खबर के आने के बाद भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने इन उत्पादों की जांच करने का निर्णय लिया है।

उल्लेखनीय है कि भारतीय मसालों के इन दोनों ब्रांड का घरेलू बाजार में भी वर्चस्व है तथा इनकी भारी मांग अमेरिका, यूरोप, मध्य-पूर्व समेत विभिन्न विदेशी बाजारों में भी है।  ऐसे में दो जगहों पर पाबंदी के बाद इनके उत्पादों की गहन जांच जरूरी हो जाती है।  हाल ही में खाद्य प्राधिकरण ने ई-कॉमर्स कंपनियों को निर्देश दिया है कि ‘स्वास्थ्यवर्द्धक पेय’ बताकर बेचे जा रहे उत्पादों को इस श्रेणी से हटा लिया जाए क्योंकि ऐसी कोई श्रेणी खाद्य कानून में परिभाषित ही नहीं की गयी है।  यह निर्देश भी तब जारी हुआ, जब यह पता चला कि ऐसे कुछ उत्पादों में चीनी की मात्रा बहुत अधिक है और बच्चों-किशोरों के स्वास्थ्य पर इनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

खाद्य प्राधिकरण एक प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय ब्रांड के बेबी फूड (नवजात शिशुओं के लिए खाद्य पदार्थ एवं पेय) में चीनी की मात्रा की जांच भी कर रहा है।  रिपोर्टों में बताया गया है कि अन्य कई ब्रांडों के उत्पादों को भी जांच के दायरे में लाया जा सकता है।  ऐसी आशा है कि दोषी पाये गये ब्रांडों पर कड़ी कार्रवाई होगी।  इन मामलों से यह भी इंगित हो रहा है कि खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता की जांच और निगरानी की व्यवस्था को मुस्तैद करने की आवश्यकता है।  हमारे देश में खाने-पीने की चीजों में मिलावट की समस्या बहुत पुरानी है।  ऐसे कई मामले पकड़े भी जाते हैं और दोषियों को दंडित भी किया जाता है, पर फिर भी मिलावट का खेल चलता रहता है।  इसे रोकने के लिए कठोर प्रावधानों की जरूरत है।

साथ ही, उन अधिकारियों को भी सजा दी जानी चाहिए, जिनकी लापरवाही से यह सब चलता रहता है।  हालिया मामले इसलिए भी गंभीर हैं कि वे बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़े हैं तथा मसाले हर रसोई की जरूरत हैं।  हमारे देश में बच्चों में मोटापा बढ़ना एक गंभीर चुनौती बनती जा रही है।  उसकी मुख्य वजह बाजार के उत्पादों में चीनी जैसी चीजों की मौजूदगी है।  जंक फूड, फास्ट फूड, डिब्बाबंद चीजें आदि के बारे में चिकित्सक पहले से ही आगाह करते आ रहे हैं कि ये गंभीर रोगों के कारण हैं।  खाद्य पदार्थों में डाले जा रहे नुकसानदेह तत्वों से स्वास्थ्य समस्याएं और बढ़ेंगी।  इस संबंध में उपभोक्ताओं को अधिक सचेत भी रहना चाहिए।

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